जैन शासन में श्री नवपद जी की आराधना के लिए वर्ष में दो समय बताये गये हैं—१. आसोज मास और २. चैत्र मास । पहला आश्विन शुक्ला सप्तमी से आश्विन शुक्ल पूर्णिमा पर्यन्त तथा दूसरा चैत्र शुक्ला सप्तमी से चैत्र शुक्ला पूणिमा पर्यन्त । दोनों में नौ दिनों का तप होता है ।
शरद और वसन्त ऋतुओं में नवपद ओलीजी की आराधना होती है। इन ऋतुओं में शारीरिक विकार अधिक होते हैं-उनके शमन के लिए रूक्ष भोजन का विधान है। ओलीजी की तपस्या दैहिक और आध्यात्मिक आरोग्य के लिए संजीवनी औषधि तुल्य है । ‘शरीरमाद्यं खलु धर्मसाधनम्’ शरीर निश्चय ही धर्म का प्रथम अवलम्ब है। इसलिए दैहिक स्वस्थता अत्यन्त आवश्यक है। तप ‘देह-देवालय’ बनाने का अनुपम आधार है ।
श्री सिद्धचक्र भगवन्त के नवपद हैं-१, अरिहन्त पद, २. सिद्ध पद, ३. आचार्य पद, ४. उपाध्याय पद, ५. साधु पद, ६. दर्शन पद, ७. ज्ञान पद, ८, चारित्र पद, ९. तप पद ।
श्री नवपद को आराधना सुदेव-गुरु-धर्म की आराधना है । श्री अरिहन्त-सिद्ध-आचार्य-उपाध्याय-साधु पंच परमेष्ठी सम्यग् ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप-चार गुणों से अलंकृत हैं । अतः नवपद की आराधना से आराधक इन दिव्य गुणों से विभूषित हो जाता है । जैसे फुलों को हाथ में लेने से उनकी सुगन्ध हाथ में आ जाती है, जैसे शीतल जल के संयोग से शीतलता का अनुभव होता है, जैसे मिष्टान्न से मधुरता को प्रतीति होती है, वैसे ही गुणीजनों की सेवा-अर्चना से गुण प्राप्त होते हैं। अतः नवपदजी की आराधना सर्व मंगलविधायिनी है ।