यस्य प्रभावाद् विजयो जगत्यां,
सप्ताङ्गराज्ये भुवि भूरिभाग्यम् ।
परत्र देवेन्द्रनरेन्द्रता स्यात्,
तत् सिद्धचक्र विदधातु सिद्धिम् ।।१।।
अर्थ-जिसके प्रभाव से इस लोक में विजय तथा पृथ्वी पर पुण्य की पराकाष्ठारूप सप्तांग राज्य की प्राप्ति होती है, परभव में इन्द्रत्व और चक्रवत्तित्व प्राप्त होता है, ऐसा सिद्धचक्र (मुझे) सिद्धि याने मुक्ति-मोक्ष प्रदान करे । [अर्थात् मुझे मोक्ष का शाश्वत सुख देने वाला हो]।।१।।
जैनशासन के रहस्य-रत्नों के समान उद्धारक, तारक और पावनतम श्री सिद्धचक्र भगवन्त के नवपद हैं। इन नबपदों में अरिहन्तादिक पञ्च परमेष्ठी गणी हैं और दर्शनादिक चार पद गुणों के रूप में हैं। इन सर्वोत्तम गुणों के सम्पादन से ही पञ्चपरमेष्ठी पूज्य, वन्द्य और साध्य कहलाते हैं ।
अरिहन्तादिक पञ्च परमेष्ठी नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव निक्षेपों से प्रतिदिन पुज्य हैं। नामादिक चारों निक्षपों में प्रथम स्थापना निक्षेप सर्वाधिक काल पर्यन्त अनेक भव्यजीवों के लिए अति उपकारी बनता है। इसीलिए जैन शासन में दर्शन, ज्ञान, चारित्र तथा देवगुरुधर्ममय श्रीनवपद जी की आराधना का विधान मुख्यरूप में कहा गया है । इसके अतिरिक्त जगत् में आत्मा के लिये अन्य कोई उत्कृष्ट आलम्बन नहीं है।
ऐसे नवपदमय श्रीसिद्धचक्रभगवन्त की अनुपम आराधना के लिये वर्ष में दो समय बताये गये हैं (१) असोज मास और (२) चैत्र मास । पहला आश्विन शुक्ला सप्तमी से प्राश्विन शुक्ला पूणिमा पर्यन्त नव दिनों का है और दूसरा चैत्र शुक्ला सप्तगी से चैत्र शुक्ल पूर्णिमा पर्यन्त नव दिनों का ।।
नवपद की आराधना का काल शरद और बसन्त ऋतु (आश्विन और चैत्र मास) में बताया गया है। यह समय स्वाभाविक रूप से ही मोह के अनुकूल होता है । इस समय प्रकृति का वातावरण भी अत्यन्त मादक और मोहक रहता है। अतः विषयाभिलाषी जीव इन्द्रियों को अपनी तरफ पूरे वेग से आकर्षित करने का यत्न करता है अतः ऐसे समय में इन्द्रियों पर विशेष काबू रखकर और मोह के वश न होकर उन्हें दूर हटाना चाहिए जिससे वे वापिस अपने को न सता सकें।
क्रमशः सर्दी और गर्मी के काल-परिवर्तन के सन्धिरूप आश्विन तथा चैत्र मास अनेक शारीरिक रोगों को जन्म देने वाले होते हैं । प्रायः रोगों की उत्पत्ति में प्रबल कारण अजीर्ण होता है। आहार-निहार की अनियमितता से अजीर्ण होता है । इसलिये आहार और आचरण पर नियन्त्रण रखना नितान्त आवश्यक है। दोनों पर नियन्त्रण रखने वाला व्यक्ति सामान्यतः रोगों का शिकार नहीं बनता । इस विषय में वैद्यक ग्रन्थों में कहा है कि
वैद्यानां शारदी माता, पिता तु कुसुमाकरः । हेमन्तस्तु सखा प्रोक्तो, हितभुङ मितभुगरिपुः ॥
अर्थात् शरदऋतु वैद्यों की माता है, वसन्त ऋतु वैद्यों का पिता है। हेमन्त ऋतु वैद्यों का मित्र है तथा हितकर और प्रमाणसर भोजन करने वाला पथ्यवान मानव | वैद्यों का रिपु-शत्रु कहा गया है ।
शरद् और बसन्त ऋतु में रोग का वातावरण विशेषरूप में होता है। देह में कफ और पित्त का ऋतुजन्य विकार होता है इसलिये अश्विन एवं चैत्र मास की शाश्वती ओली में श्रीसिद्धचक्र-नवपद की आराधना में आराधक महानुभावों के लिए दिवस में मात्र एक ही बार रूक्ष (रूखा) भोजन रूप महामंगलकारी आयम्बिल तप करने का विधान है । आयम्बिल नहीं करने वालों को भी रूखा भोजन करना लाभदायक सिद्ध होगा।
श्री सिद्धचक्र भगवन्त के नवपद अखण्ड हैं। उनकी सम्यग् आराधना कर आराधक भव्यात्मा सकल कर्म का क्षय करके अखण्ड, अविचल, शाश्वत मोक्षसुख को प्राप्त कर सकता है।
नवपद का आलम्बन स्वीकार कर के भूतकाल में कई भव्यात्माओं ने मोक्षसुख प्राप्त किया है, वर्तमान काल में महाविदेह क्षेत्रादिक से प्राप्त कर रहे हैं और भविष्य में भी इधर और उधर से अवश्य प्राप्त करेंगे ।